Thursday 2 November 2017

साक्षात्कार । कवि लटूरी लट्ठ



प्र0ः-1 महोदय, लोग अपने नाम में भिन्न भिन्न प्रकार के नाम जोड़ते हैं, लेकिन आपने अपने नाम में ’’लट्ठ’’ शब्द का प्रयोग किया है, इसके पीछे क्या रहस्य है ? 

उ0ः- कई रहस्य है इसके पीछे। एक तो हमारे काका बहुत बडे़ कवि थे, तो उन्होंने लट्ठ के गुणों का वर्णन किया था - ’’ लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। नद नाले गहरे भरेें वहाँ बचावे अंग ’’ ।। यानि कि लाठी बहुत गुणवान है और लोग अपने साथ रखना पसंद करते हेैं । आज भी लाठी का महत्त्व है । अब लोग गाड़ी का इस्तेमाल करते हैं , पहले पैदल चलना पड़ता था तो कुत्ते का डर रहता था, तब लाठी साथ रखते थे । बुढ़ापे में जब लोगों की कमर झुक जाती है तब लाठी काम आती है । दूसरा यह कि मेरी ’’बैकबोन’’ फै्रक्चर हो गई थी 1987 में तो मैं लगभग छह महीने तक बिस्तर पर रहा , तो मैं तीन साल तक बिना लाठी के चल नहीं सकता था । हम गाँव के रहने वाले हेैं, लाठी को लट्ठ बोल देते हैं । तो मोहल्ले में लोग खुद से ही ’’ लट्ठ-लट्ठ ’’ बोलने लगे । और सर्टिफिकेट में नाम ’’लटूरी लाल’’ है, यह मेरी दादी का दिया हुआ नाम है । तो वह हटाना भी नहीं है । जो सर हमें इंटरमीडियेट में मैथ्स पढ़ाते थे तो उन्होंने ऐसा कुछ कहा कि तुम ’’एल-स्कवायर’’ हो, अब ’’एल-क्यूब’’ हो जाओ । तो वह एल-क्यूब करने के लिये भी नाम में लट्ठ लगा लिया गया । 



         प्र0ः-2 महोदय, वर्तमान स्थिति में ज्यादातर लोग गंभीर रहते हैं, आप अपनी कविताओं में हास्य रस कैसे लाते हैं, आप कैसे इतने सक्षम हैं लोगों को हंसाने में ?

 उ0 हंसने के पीछे दो कारण होते हैं । एक तो लोग दूसरों की मूर्खता पर हंसते हैं । जैसे उदाहरण के लिये आप बारिश में फिसल कर गिर गये, तो आपके साथ वाले हंसने लगेंगे । आप गिर गये, वो हस रहे हैं । मतलब हमारे  दुःख 
से खुश होते हैं । लोग अपने दुःख से दुःखी नहीं हैं, दूसरों के सुख से दुःखी हैं । आपको मुसीबत में फंसा देखकर लोग खुश होना चाहते हैं । तो हम ऐसी बातें करते हैं कि लोगों के मन में ऐसा चला जाये कि हम दःुखी हैं , तो लोग हंसेंगे । कई बार हम अपनी कमज़ोरियों को लेकर भी हंसते है । तो लोग बस आपकी मूर्खता और कमज़ोरियों पर ही हंसते हैं ।


प्र03ः- महोदय, वक्त में थोड़ा पीछे चलते हैं , आपने कवितायें लिखना शुरू कैसे किया या फिर आपकी प्रेरणा क्या थी ? 


उ0 जहाँ मैं पैदा हुआ वहाँ बिजली नहीं थी और आज भी नहीं है । सरकार ने एक प्राथमिक स्कूल ज़रूर बना दिया था , जहाँ हम जाते थे । जब हम पढ़ा करते थे , तब लोगों में आज़ादी की उमंग ज्यादा थी । प्रभातफेरी निकलती थी , बच्चों को हाथ मे झण्डा दिया जाता था । गाँव में हर घर में लोग खुशी मनाते थे । हमारे घर वाले भी इतने पढ़े लिखे नहीं थे , तो कोई ऐसा नहीं था जो हमें कुछ सिखा देता ताकि हम भी 15 अगस्त में सम्मिलित होकर , कुछ बोलकर इनाम जीत सकें । तो जब हम कक्षा-3 में थे , तब हमने एक कविता लिखी । वो क्या था पता नहीं , पर जब हमने उसका प्रस्तुतिकरण किया , तो वह हमारे सारे शिक्षकों को बहुत अच्छी लगी । वह असल में व्यंग्य था । जो नेताओं का जनता के प्रति बर्ताव है और हमें आज़ादी तो मिली है, लेकिन बुरा करने के लिये , उस बुराई का ज़िक्र था । और वह बाद में पता चला कि इसे व्यंग्य कहते हैं । हमारे एक शिक्षक एक पत्रिका निकालते थे तो उस पत्रिका में हमारी कविता आयी , तो आगे और रूचि बढ़ी । 



प्र04ः- महोदय,  हिन्दी की स्थिति आज कुछ खास अच्छी नहीं है , तो उस पर आप आज कल के युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगे ? 


उ0 मैं यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि लोगों को अपनी मातृभाषा के प्रति जागरूक होना पड़ेगा । मेरा विचार यह है कि आज यह जो नैतिक पतन का युग प्रारंभ हो गया है , मैं पिछले दो या तीन दशक से यह नज़ारा देख रहा हूँ । समाज बेटियों को अच्छी नज़र से नहीं देखता । हमें अखबार पढ़ते समय भी शर्म आती है । यह जो पतन है उसका कारण है हमारा अपनी भाषा से दूर होना । ज्ञान और बुद्धिमत्ता में बहुत अंतर है । बुद्धिमत्ता आपको अपनी भाषा के माध्यम से ही मिलती है । हमारा मस्तिष्क अपनी भाषा का ग्राही होता है । एक एल.आई.सी. के एजेण्ट से हमारी बात हुई थी इस संदर्भ में । उसने कहा था ’’ पढ़े लिखे लोगों का बीमा करना आसान होता है ’’ , तो हमने इसका अर्थ यूूं निकाला कि पढ़े लिखे लोगों के पास ज्ञान तो होता है पर बुद्धिमत्ता नहीं , इसलिये वे जल्दी मूर्ख बन जाते हैं । हमारी भाषा हमें संस्कार देती है , संस्कृति की रक्षा भी करती है । हमने इस पर छंद भी लिखा है - 

                                                      
                              ’’ चाहते हो यदि राम जी को जानना , 
                                  तो तुलसी की मानस को सुनिए-सुनाईये 
                                  बाल-कृष्ण लीलाओं का सुख तभी मिलता है ,
                                  जब आप सूर-सागर में डुबकी लगाईये 
                                  ज्ञान चक्षु खोलने को साखियाँ कबीर की,
                                  प्रेम के अनन्य पद मीरा के भी गाईऐ
                                  किंतु है निवेदन जो मानना पड़ेगा सबै ,
                                 सबसे पहले आप अपनी हिन्दी सीख जाईये ’’ ।। 

   
   साक्षात्कार एवं संपादनः
   आकांक्षा तिवारी एवं तन्मय शर्मा 
    फोटोग्राफरः
   निशिधा श्री

No comments:

Post a Comment